मुंबई का अंडरवर्ल्ड, गैंगवार और एनकाउंटर दर्शक इतनी दफ़ा पर्दे पर देख चुके हैं कि कुछ नया नहीं लगता। अतुल सभरवाल निर्देशित क्लास ऑफ़ 83 की सबसे बड़ी समस्या यही है, साथ ही इस फ़िल्म की मजबूरी भी।
हिंदी सिनेमा में पुलिस, राजनीति और गैंगस्टरों के गठजोड़ पर इतनी फ़िल्में बन चुकी हैं कि अब इस विषय को भुनाना फ़िल्ममेकर्स के लिए एक चुनौती बन गया है।
क्लास ऑफ़ 83 की कहानी एस. हुसैन ज़ैदी के नॉवल क्लास ऑफ़ 83- द पनिशर्स ऑफ़ मुंबई से ली गयी है। हालांकि फ़िल्म के शीर्षक से पनिशर्स ऑफ़ मुंबई हटा दिया गया है। चूंकि फ़िल्म एक पीरयड नॉवल का अडेप्टेशन है, इसलिए लेखक के पास ज़्यादा प्रयोग करने की गुंजाइश भी नहीं रही होगी। ख़ैर, क्लास ऑफ़ 83 नेटफ्लिक्स पर 21 अगस्त को रिलीज़ हो गयी और इसी के साथ करियर के 25वें साल में बॉबी देओल का डिजिटल वर्ल्ड में डेब्यू भी हो गया।
मुंबई धमाकों पर आधारित उनकी किताब ब्लैक फ्राइडे पर अनुराग कश्यप ने ब्लैक फ्राइडे बनायी थी। संजय गुप्ता की शूट आउट एड वडाला में ज़ैदी की एक और चर्चित किताब डोंगरी टू दुबई के हिस्सों का इस्तेमाल किया गया था।
खोजी पत्रकार रहे ज़ैदी आपराधिक पृष्ठभूमि (खासकर अंडरवर्ल्ड) पर किताबें लिखने के माहिर माने जाते हैं। उनकी लिखी कई किताबों पर फ़िल्में बनायी गयी हैं। ‘क्लास ऑफ़ 83’, जिसमें 80 के दौर की मुंबई और अंडरवर्ल्ड को दिखाया गया है। मुंबई की मरणासन्न मिलों के मजदूरों की ख़राब आर्थिक स्थिति और मिलों पर गिद्ध-दृष्टि जमाये बैठे बिल्डरों के उद्भव को भी कहानी में संवादों के ज़रिए छुआ गया है।
सियासत और अंडरवर्ल्ड के अटूट गठजोड़ ने पुलिस महकमे के लिए उन्हें ख़त्म करना लगभग नामुमकिन बना दिया था। यह भी कह सकते हैं कि क्लास ऑफ़ 83 मुंबई में पहले एनकाउंटर स्क्वॉड के बनने की कहानी है।
मुंबई में अंडरवर्ल्ड के फलने-फूलने की एक बहुत बड़ी वजह मिलों से बेरोज़गार हुए युवा भी रहे। मुंबई और अंडरवर्ल्ड की यह कहानी बहुत पुरानी है, मगर अभिजीत देशपांडे की चुस्त पटकथा ने इसे ऊबाऊ नहीं होने दिया। क्लास ऑफ़ 83 मूल रूप से उस आइडिया का बीज पड़ने और उसके विकसित होने की कहानी है, जिसमें गैंगस्टरों के ख़ात्मे के लिए पुलिस को सिर्फ़ एनकाउंटर का रास्ता नज़र आता है।