राष्ट्र आजकल प्रतिनिधि । ज्येष्ठ मास की शुक्ल त्रयोदशी से पूर्णिमा तक वट सावित्री व्रत किया जाता है। इस साल ये व्रत 12 जून से शुरू होगा और 14 जून को खत्म होगा। वट सावित्री व्रत के संबंध में अलग-अलग मान्यताएं हैं। कुछ जगहों पर ये व्रट ज्येष मास शुक्ल त्रयोदशी से अमावस्या तक किया जाता है। ज्येष्ठ पूर्णिमा को वट पूर्णिमा भी कहते हैं। इस बार इस व्रत की तारीख को लेकर पंचांग भेद भी हैं।
उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के मुताबिक ज्येष्ठ माह के इस व्रत से महिलाओं को सौभाग्य मिलता है। महिलाएं पति की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य के लिए ये व्रत करती हैं। वट यानी बरगद को देव वृक्ष माना जाता है। मान्यता है कि वट वृक्ष के मूल भाग में ब्रह्मा जी, मध्य भाग में विष्णु जी और अग्रभाग यानी आगे वाले हिस्से में शिव जी का वास होता है। सावित्री देवी का वास भी वट वृक्ष में माना गया है। वट वृक्ष के नीचे बैठकर किए गए पूजा-पाठ अक्षय पुण्य प्रदान करते हैं और भक्तों की इच्छाएं पूरी हो सकती हैं।
ये हैं वट सावित्री व्रत की खास बातें
ज्येष्ठ मास के सभी व्रत-पर्वों में वट सावित्री व्रत का प्रभाव सबसे अधिक माना जाता है। इस महीने की शुक्ल त्रयोदशी से ही व्रत शुरू हो जाता है।
त्रयोदशी तिथि से व्रत करने वाली महिला निराहार रहती है या एक समय भोजन करती हैं। चतुर्दशी तिथि और पूर्णिमा को पूरे दिन व्रत किया जाता है।
अगर कोई महिला चाहे तो वह ये व्रत सिर्फ पूर्णिमा पर भी कर सकती है। इस व्रत में वट वृ़क्ष की पूजा की जाती है। वृक्ष के चारों ओर कच्चा सूत लपेटा जाता है।
एक टोकरी में सत्यवान और सावित्री की मूर्ति रखी जाती है और इनकी पूजा की जाती है।
व्रत करने वाली महिलाएं किसी योग्य ब्राह्मणों को सिंदूर, चूड़ियां, काजल, बिंदी, वस्त्र, कुमकुम, आभूषण आदि चीजें किसी जरूरतमंद व्यक्ति को दान करनी चाहिए।
इस दिन सत्यवान और सावित्री की कथा सुनने और पढ़ने की भी परंपरा है। इस कथा के अनुसार सावित्री यमराज से अपने अल्पायु पति के प्राण वापस ले आई थी। सावित्री के तप से ही सत्यवान फिर से जीवित हुआ और उनके घर-परिवार में सुख-समृद्धि आई थी।
वट सावित्र व्रत के प्रभाव से संतानों को भी सकारात्मक फल मिल सकते हैं। इस दिन सत्यवान-सावित्री के साथ ही यमराज का भी पूजन किया जाता है।