राष्ट्र आजकल प्रतिनिधि। भगवान की कृपा तो सब पर होती है और निरंतर होती है और वो सभी अवस्था में समान होती है, लेकिन मनुष्य की बुद्धि उन भोग पदार्थों में रहती है जब मनुष्य भगवान विष्णु की सेवा करता है, जप करता है और उसके बाद उसे संसार के भोग प्राप्त होते हैं तो वो ये सोचता है कि मेरी इस कामना को ईश्वर ने पूरा कर दिया है। वह अक्सर उस सुख और भोग को विष्णु कृपा मानता है जो दिन ब दिन उसे मोह और माया में खींच रहे है। इसी का उल्टा होने पर वह यह भी कहता हुआ आपको मिल जाएगा कि ईश्वर होते तो मेरा यह काम क्यों रुकता? ईश्वर होते तो क्या मेरी पूजा का फल मुझे नहीं देते? मैंने उस कामना से जो यज्ञ किया वो मुझे प्राप्त नहीं हुई? कई तो आपको ऐसे भी लोग मिलेंगे जो इतना तक आपसे कह देंगे की ईश्वर तो सिर्फ कोरी कल्पना है दरअसल होता ये है की अनुकूल और प्रतिकूल दोनों अवस्था किसी भी संत, ज्ञानी और विद्वान के लिए नहीं होती। रामचरित मानस में तुलसीदास जी लिखते हैं जैसे-जैसे इंसान के अंदर भोग की लालसा बढ़ती है वो अहंकार का प्रचारक बन जाता है, ये वही व्यक्ति था जो जीवन में भोग के नहीं होने पर ईश्वर की कृपा को ही सबसे बड़ा मानता था लेकिन इंसान की बुद्धि ऐसी है की जरा सी सफलता प्राप्त होते ही उसकी बुद्धि घूम जाती है।